मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

आपसे कहना है

दोस्तों!
आजकल परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आ रहा है,यह बदलाव सकारात्मक कम नकारात्मक ज्यादा है.साहित्य में भी बदलाव आया है लेकिन कुछ अनमना सा, समकालीन परिस्थितियों और समकालीन साहित्य में कोई तालमेल नहीं बन पा रहा है .यही सबसे बड़ा कारण है कि साहित्य अपनी भूमिका को सामाजिक बदलाव के परिप्रेक्ष्य में ठीक -ठीक निभा पाने में असमर्थ है.इस असमर्थता के लिए सबसे पहले साहित्यकार को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा।
'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है , देखना है ज़ोर कितना बाजू-ऐ-कातिल में है' पंक्तियों में इतनी ताकत थी कि जिसे सुनकर और दुहराकर क्रांतिकारियों में फाँसी के फंदे को चूमने में जरा भी देर नहीं लगी और हंसते हुए देश के लिए शहीद हो गए.दिनकर की कविता की पंक्तियाँ 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' आन्दोलन का नारा ही बन गया.इस तरह के साहित्य के न जाने कितने उदहारण दिए जा सकते हैं जिन्होंने सामाजिक,राजनैतिक बदलाव में अहम् भूमिका निभाई है .फिर क्या कारण है आज इतने सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक अनाचार,अत्याचार और अपराध के बाद भी कोई ऐसा प्रभावशाली साहित्य नही तैयार हो रहा है.मेरी समझ से इस तथ्य के पीछे जो जिम्मेदार है,वह रचनाकार के सिवाय और कोई नहीं है.साहित्यकार सम्मान का पात्र होता है तो जिम्मेदारियां भी उसे स्वतः ही मिल जाती हैं.किसी समय में जो आवश्यकता ऋषियों, मुनियों की थी उससे कम महत्व आज सृजनकर्ता अथवा साहित्यकार का नहीं है।
आप सभी से नम्र निवेदन है कि इस ब्लॉग को अपनी स्तरीय रचनाओं से समृद्ध करें,एक प्रार्थना यह भी रहेगी भाषा में अभद्रता किसी भी प्रकार न आने पाए।

के.एन.अमित

२० अक्टूबर २००९